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मा॒तेव॑ पुत्रं पृ॑थि॒वी पु॑री॒ष्य᳖म॒ग्नि स्वे योना॑वभारु॒खा। तां विश्वै॑र्दे॒वैर्ऋ॒तुभिः॑ संविदा॒नः प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्म्मा॒ वि मु॑ञ्चतु ॥६१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा॒तेवेति॑ मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। पृ॒थि॒वी। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ग्निम्। स्वे। यौनौ॑। अ॒भाः॒। उ॒खा। ताम्। विश्वैः॑। दे॒वैः॒। ऋ॒तुभि॒रित्यृ॒तुऽभिः॑। सं॒वि॒दा॒न इति॑ सम्ऽविदा॒नः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। वि। मु॒ञ्च॒तु॒ ॥६१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:61


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

माता किस के तुल्य सन्तानों को पालती है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (उखा) जानने योग्य (पृथिवी) भूमि के समान वर्त्तमान विदुषी स्त्री (स्वे) अपने (यौनौ) गर्भाशय में (पुरीष्यम्) पुष्टिकारक गुणों में हुए (अग्निम्) बिजुली के तुल्य अच्छे प्रकाश से युक्त गर्भरूप (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के समान (अभाः) पुष्ट वा धारण करती है, (ताम्) उसको (संविदानः) सम्यक् बोध करता हुआ (विश्वकर्मा) सब उत्तम कर्म करनेवाला (प्रजापतिः) परमेश्वर (विश्वैः) सब (देवैः) दिव्य गुणों और (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ निरन्तर दुःख से (वि, मुञ्चतु) छुड़ावे ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता सन्तानों को उत्पन्न कर पालती है, वैसे ही पृथिवी कारणरूप बिजुली को प्रसिद्ध करके रक्षा करती है। जैसे परमेश्वर ठीक-ठीक पृथिवी आदि के गुणों को जानता और नियत समय पर ऋतु आदि और पृथिवी आदि को धारण कर अपनी-अपनी नियत परिधि में चला के प्रलय समय में सब को भिन्न करता है, वैसे ही विद्वानों को चाहिये कि अपनी बुद्धि के अनुसार इन सब पदार्थों को जना के कार्य्यसिद्धि के लिय प्रयत्न करें ॥६१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

माता किंवत् सन्तानान् पालयतीत्याह ॥

अन्वय:

(मातेव) (पुत्रम्) (पृथिवी) भूमिवद्वर्त्तमाना विदुषी स्त्री (पुरीष्यम्) पुष्टिकरेषु गुणेषु भवम् (अग्निम्) विद्युतमिव सुप्रकाशम् (स्वे) स्वकीये (योनौ) गर्भाशये (अभाः) पुष्णाति धरति वा (उखा) ज्ञातुमर्हा (ताम्) (विश्वैः) सर्वैः (देवैः) दिव्यैर्गुणैः सह (ऋतुभिः) वसन्ताद्यैः (संविदानः) सम्यग्ज्ञापयन् (प्रजापतिः) परमेश्वरः (विश्वकर्म्मा) अखिलोत्तमक्रियः (वि) विरुद्धार्थे (मुञ्चतु)। [अयं मन्त्रः शत०७.१.१.४३ व्याख्यातः] ॥६१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - योखा पृथिवीवद्वर्त्तमाना स्त्री योनौ पुरीष्यमग्निं पुत्रं मातेवाभा धरति, तां संविदानो विश्वकर्मा प्रजापतिर्विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः सह सततं दुःखाद् विमुञ्चतु पृथग् रक्षतु ॥६१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा जननी सन्तानानुत्पाद्य पालयति, तथैव पृथिवी कारणस्थां विद्युतं प्रकटय्य रक्षति। परमेश्वरो याथातथ्येन पृथिव्यादिगुणान् जानाति प्रतिनियतसमयमृत्वादीन् पृथिव्यादींश्च धृत्वा स्वस्वनियतपरिधौ चालयित्वा प्रलयसमये भिनत्ति, तथैव विद्वद्भिर्यथाबुद्ध्येतान् विदित्वा कार्य्यसिद्धये प्रयतितव्यम् ॥६१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माता संतानांना जन्म देऊन त्यांचे पालन करते, तसेच पृथ्वी कारणरूपी विद्युतला प्रकट करून रक्षण करते. जसे परमेश्वराला पृथ्वी इत्यादींच्या गुणांचे ज्ञान असून निश्चित वेळी ऋतू निर्मिती करून पृथ्वी इत्यादींना तो धारण करून आपापल्या कक्षेत फिरवितो व प्रलयाच्या वेळी सर्वांना वेगवेगळे करतो तसे विद्वानांनीही आपल्या बुद्धीनुसार या सर्व पदार्थांना जाणून कार्यसिद्धीसाठी प्रयत्न करावेत.